बुधवार, 19 जून 2013

कुछ पंक्तियाँ :

तू नहीं और सही और नहीं और सही 
कुछ तूने भी कही कुछ मैंने भी कही 
कुछ तूने भी सही कुछ मैंने भी सही 
फिर भी कुछ बातें रह गयी अनकही । 
अब रूठ के जाना था तो दगा क्यों दी मुझको 
लिव इन रिलेशन था सिर्फ सजा क्यों मुझको ?
एक सवाल बार बार मेरे जेहन में ये आता है 
मुई सियासत का, रिश्तों से क्यों ना नाता है ?
मुक्तक :
आज बौने हो गये हैं देह के रिश्ते 
और अपनापन सहेजे नेह के रिश्ते 
स्वार्थ की आँधी, प्रलय, तटबंध टूटे 
दूर अपनों से हुए हैं गेह के  रिश्ते ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

गुरुवार, 6 जून 2013

शुभ-रात्रि :
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आज मुझे फिर अपना बचपन याद आया है 
नन्ही यादों ने फिर आकर के मुझे हंसाया है 
बचपन की शैतानी फिर आँखों में तैर गयी 
गली का नुक्कड़ कोना कोना आज सुहाया है ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

रविवार, 2 जून 2013

कविता:
कहानी औरत की 
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

कूड़े के ढेर पर बैठी 
न जाने कब से नहीं नहाई होगी 
कूड़े से न सही पर 
मैल से चिकटी वह 
अपनी धवल दन्त पंक्ति दिखाती है 
और उसी ढेर पर बैठकर खाती है 
जो भी मिल जाय, जिसे खाया जा सके 
उसे सिर्फ पेट भरने के लिए ही 
कुछ न कुछ खाना है 
न कि कुछ खाने के लिए । 
वह बीनती है कूड़ा 
और बेखबर रहती है 
मैली कुचैली निगाहों की 
दरिंदगी भरी कामनाओं से । 
वह नहीं जानती 
कि कितनी कीमती होती है 
किसी अबला की इज्ज़त -आबरू 
क्या होता है आबरू लुटने का अंजाम 
कैसे उफनता है 
जन भावनाओं का लावा 
और कानून को कठोर बनवाता है 
आबरू लुटने पर मुआवजा भी दिलवाता है 
लगता है वह अबला नहीं 
क्योंकि उसकी आबरू ही नहीं होती 
इसलिए उसके लिए 
इज्ज़त आबरू की बात बेमानी है 
यानि यह भी 
एक औरत की कहानी है ॥