शनिवार, 9 नवंबर 2013

मुक्तक 

तन्हा रातों में जिसकी बस याद सताती है 
जिसकी यादें रह रह कर मुझको भरमाती हैं  
कभी न समझा उसको, इक अज़ब पहेली है 
जाने क्यों कर यादों में आकर बस जाती है । 
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

sudhasha: muktak उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है व्...

sudhasha: muktak
उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है व्...
: muktak  उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है  व्याधियाँ कितनी भी घेरें पर मुझे लड़ना तो है  है यही निष्कर्ष जीवन की सहेली पुस्त...
दर्पण :
सिर्फ चेहरा देखा दर्पण में 
फिर इठलाये 
चेहरे की पुस्तक पर 
विभिन्न अदाओं से भरे 
अपने चेहरे दिखाए 
मगर अफ़सोस 
अपने मन का दर्पण 
कभी न देख पाये। 
 - सुधाकर आशावादी 

दम्भ :
एक अदद आदमी ने ओढ़ ली चादर 
कुछ चुनिन्दा क्लिष्ट शब्दों से भरी 
और अपने भीतर पाल लिया दम्भ 
विद्वान होने का / जतलाने का। 
- सुधाकर आशावादी 
muktak 

उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है 
व्याधियाँ कितनी भी घेरें पर मुझे लड़ना तो है 
है यही निष्कर्ष जीवन की सहेली पुस्तिका का 
श्वाँस की गति संग जीवन पाठ ही पढ़ना तो है ।
- सुधाकर आशावादी