रविवार, 24 जुलाई 2016

रचनाकार ....

तुम किसी के बंधुआ कब से हो गए ?
तुम तो प्रकृति के अंश हो / वंश हो
तुम्हें रचने हैं प्रकृति के गीत / छंद / मुक्तक
जो देते हों प्रकृति के आकर्षक सौन्दर्य की उपमाएं
मन में जागृत करते हों जीवन के प्रति आकर्षण
गतिशीलता की महत्वाकांक्षाएं .
तुम देह नहीं विचार हो
विचारों से विचारों का मिलन कराने वाले आदर्श सूत्रधार
तुम कहाँ फंस गए
जाति- बिरादरी, धर्म- परम्पराओं ,
आस्थाओं / अनास्थाओं के फेर में .
तुम्हारी रचनाधर्मिता
प्रतिविम्ब है तुम्हारे वैचारिक सौन्दर्य का .
सत्यम शिवम् सुन्दरम् के उद्घोष का .
तुम सीमाओं से परे हो
अपना अर्थ जानो
अपने विराट अस्तित्व को पहचानो
संकीर्ण चिंतन में सिमटना
तुम्हारी उड़ान में सदैव बाधक था और रहेगा .
सो हे रचनाकार खुलकर उड़ो
मुक्त गगन में /
और बनो सन्देश वाहक -
अब कोई किसी का बंधुआ नहीं रहेगा
चालाक बहेलिये अब किसी को
अपनी मनोकामनाओं के जाल में फंसाने में
सफल नहीं होंगे .
@ डॉ. सुधाकर आशावादी


शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

मुक्तक
जाने कितने जतन किये और बोले कितने झूठ
धन की चाहत रही अधूरी, ज्यों कटे वृक्ष के ठूँठ
धोखा दिया स्वयं को, न रिश्तों का सम्मान किया
जाने किस करवट अब बैठे अपने भाग्य का ऊँट ?
- सुधाकर आशावादी