शनिवार, 14 जनवरी 2012

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                           दोहे
                                  - डॉ. सुधाकर आशावादी
जंगल जंगल शांति बस्ती बस्ती आग
घर घर में अलगाव का वही विघटनी राग |

बस्ती बस्ती में उगा कुछ ऐसा आतंक
संस्कार बौने हुए क्या राजा क्या रंक |

जिस थाली में खा रहे करें उसी में छेद
कलियुग की महिमा यही है सतयुग से भेद |

आसमान छूने लगे महंगाई के बोल
नैतिकता को छोड़कर महंगी है हर तोल |

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