शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

मुक्तक  :

अँखियों से लरजी शर्म और छुअन का स्पंदन
आँखों आँखों होता मन से वन्दन अभिनन्दन
दूर हो गया अब स्वयं से स्वयं का ही बतियाना
जाने कैसे लुप्त हुआ रिश्तों का पावन चन्दन ।।
- सुधाकर आशावादी

1 टिप्पणी: