....ज्वलंत प्रश्न
==============
बहुत बुरा लगता है
जब दोगुलेपन की बात होती है
सुविधाओं की धर्म और जाति के नाम पर
बंदरबांट होती है ।
मैं विरोध करूँ भी तो कैसे
जब सियासत की ये जात होती है ।
मन करता है विरोध करूँ
क्यों बांटा गया है आदमी को
जाति और धर्म की संकीर्णताओं में ।
क्यों लिखा जाता है
उसके नाम के सामने जाति का नाम ?
अगड़ा, पिछड़ा या दलित होने पर
क्यों अगड़े की अवहेलना करके
दिया जाता है अन्यों को विशिष्ट सम्मान ?
क्या यही है देश की
धर्मनिरपेक्ष और जातिनिर्पेक्ष लोकहित भावना
क्या इसमें नहीं झलकती कोई दुर्भावना ?
फिर काहे लोक कल्याण का दम भरते हो
जब लोक कल्याण की बात न कोई करते हो ।
जाने वह दिन कब आएगा
जब विघटनकारी संकीर्णताओं से उबरकर
देश को न्यायकारी समता
और समानता की पटरी पर दौड़ाया जायेगा ?
- सुधाकर आशावादी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें