शनिवार, 9 नवंबर 2013

मुक्तक 

तन्हा रातों में जिसकी बस याद सताती है 
जिसकी यादें रह रह कर मुझको भरमाती हैं  
कभी न समझा उसको, इक अज़ब पहेली है 
जाने क्यों कर यादों में आकर बस जाती है । 
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

sudhasha: muktak उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है व्...

sudhasha: muktak
उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है व्...
: muktak  उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है  व्याधियाँ कितनी भी घेरें पर मुझे लड़ना तो है  है यही निष्कर्ष जीवन की सहेली पुस्त...
दर्पण :
सिर्फ चेहरा देखा दर्पण में 
फिर इठलाये 
चेहरे की पुस्तक पर 
विभिन्न अदाओं से भरे 
अपने चेहरे दिखाए 
मगर अफ़सोस 
अपने मन का दर्पण 
कभी न देख पाये। 
 - सुधाकर आशावादी 

दम्भ :
एक अदद आदमी ने ओढ़ ली चादर 
कुछ चुनिन्दा क्लिष्ट शब्दों से भरी 
और अपने भीतर पाल लिया दम्भ 
विद्वान होने का / जतलाने का। 
- सुधाकर आशावादी 
muktak 

उलझनें कितनी भी आयें पर मुझे चलना तो है 
व्याधियाँ कितनी भी घेरें पर मुझे लड़ना तो है 
है यही निष्कर्ष जीवन की सहेली पुस्तिका का 
श्वाँस की गति संग जीवन पाठ ही पढ़ना तो है ।
- सुधाकर आशावादी  

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

लघुकथा : 

कालिदास 
-  सुधाकर आशावादी 
 
माँ बहुत क्रोध में थी । बेटे को घसीट कर चिकित्सक के पास ले आई - डॉक्टर साहेब … मैं इस बच्चे से बहुत परेशान हूँ , समझाती कुछ हूँ , समझता कुछ है । घर में किसी की सुनता ही नहीं , आज इसने पिटने लायक काम कर दिया । मेरी फ़ाइल का जरूरी कागज फाड़ दिया । इसका ऐसा इलाज करो कि यह शैतानी में बेवकूफी भरी हरकतें न करे । 
चिकित्सक महोदय ने उसकी नब्ज़ पकड़ी , फिर उसकी आँखों में टॉर्च की रोशनी डाली , तदुपरांत बोले - बहिन जी इसकी उम्र क्या है … लगता है कि आपके लाड़ प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है , वैसे भी इसकी बुद्धि का इसकी उम्र के हिसाब से विकास नहीं हुआ है, मेरी  बात मानो इसका दाखिला प्ले स्कूल में करा दो , धीरे धीरे यह सही जायेगा । 
कैसी बातें कर रहे हो डॉक्टर साहेब … इसके साथ के बच्चे तो पढ़ाई पूरी करके काम धंधे पर लग गए हैं , अभी आप इसे प्ले स्कूल में ही पढ़ाने की बात कर रहे हैं , मैं तो इसे अपने कुनबे की ज़िम्मेदारी सौंपना चाह रही हूँ । माँ ने स्पष्ट किया । 
चिकित्सक को न जाने क्या सूझी , वह बोला - जिस डाल पर बैठे और उसी डाल को काटें , ऐसे कालिदास आज के समय में नहीं मिलते , आगे आपकी मर्जी । 
माँ पैर पटकती हुई वापस लौट गयी । 
लघुकथा : 

कालिदास 
-  सुधाकर आशावादी 
 
माँ बहुत क्रोध में थी । बेटे को घसीट कर चिकित्सक के पास ले आई - डॉक्टर साहेब … मैं इस बच्चे से बहुत परेशान हूँ , समझाती कुछ हूँ , समझता कुछ है । घर में किसी की सुनता ही नहीं , आज इसने पिटने लायक काम कर दिया । मेरी फ़ाइल का जरूरी कागज फाड़ दिया । इसका ऐसा इलाज करो कि यह शैतानी में बेवकूफी भरी हरकतें न करे । 
चिकित्सक महोदय ने उसकी नब्ज़ पकड़ी , फिर उसकी आँखों में टॉर्च की रोशनी डाली , तदुपरांत बोले - बहिन जी इसकी उम्र क्या है … लगता है कि आपके लाड़ प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है , वैसे भी इसकी बुद्धि का इसकी उम्र के हिसाब से विकास नहीं हुआ है, मेरी  बात मानो इसका दाखिला प्ले स्कूल में करा दो , धीरे धीरे यह सही जायेगा । 
कैसी बातें कर रहे हो डॉक्टर साहेब … इसके साथ के बच्चे तो पढ़ाई पूरी करके काम धंधे पर लग गए हैं , अभी आप इसे प्ले स्कूल में ही पढ़ाने की बात कर रहे हैं , मैं तो इसे अपने कुनबे की ज़िम्मेदारी सौंपना चाह रही हूँ । माँ ने स्पष्ट किया । 
चिकित्सक को न जाने क्या सूझी , वह बोला - जिस डाल पर बैठे और उसी डाल को काटें , ऐसे कालिदास आज के समय में नहीं मिलते , आगे आपकी मर्जी । 
माँ पैर पटकती हुई वापस लौट गयी । 
लघुकथा :

पहिचान 
- सुधाकर आशावादी 

पड़ौस के जनपद से सांप्रदायिक हिंसा की ख़बरें वातावरण में अपना अस्तित्व दर्शा रही थी । आस पास के क्षेत्रों में भी आपसी भाईचारे और सदभाव पर संकट के बादल मंडराने लगे । मुझे दूसरे शहर में जाना था , बस अड्डे तक पहुँचने के लिए मुझे उस बस्ती से गुजरना अनिवार्य था , जो दूसरे संप्रदाय के लोगों की थी , मैंने अपनी धार्मिक मान्यताओं एवं परम्पराओं के अनुसार धार्मिक चिन्ह शरीर पर धारण किये हुए थे , जो मुझे सम्प्रदाय विशेष का प्रदर्शित करने में समर्थ थे। मैं समझ नही पा रहा था , कि तनाव की स्थिति में उस क्षेत्र से होकर कैसे गुजरा जाय ? सो मैंने घर से निकलते ही अपनी पहिचान प्रदर्शित करने वाले चिन्हों को शरीर से अलग करना शुरू कर दिया । मार्ग में तनाव अवश्य था , किन्तु पहिचान चिन्हों की ओर संभवतः किसी का ध्यान नहीं था । सभी सहमे सहमे से नज़र आ रहे थे , मगर पहिचान चिन्ह इंसानों में सम्प्रदाय विशेष के प्रतीक चिन्ह प्रतीत होकर यह जताने में समर्थ थे कि इन के कारण इंसान अपनी असल पहिचान कहीं न कहीं खो चुका है । 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2013

शुभ रात्रि :

नींद आने से पहले ही थकन होना ज़रूरी हैं 
यहाँ सत्कर्म से पहले लगन होना ज़रूरी है  
धरा के जीव जंतु भी परस्पर प्यार करते हैं 
हमें हर काज में मित्रों मगन होना ज़रूरी है । 
- सुधाकर आशावादी 
मुक्तक 

नींद आने से पहले ही थकन होना ज़रूरी हैं 
यहाँ सत्कर्म से पहले लगन होना ज़रूरी है  
धरा के जीव जंतु भी परस्पर प्यार करते हैं 
हमें हर काज में मित्रों मगन होना ज़रूरी है । 
- सुधाकर आशावादी 

गुरुवार, 5 सितंबर 2013

मुक्तक  :

विकृति और संत सरीखा आचरण 
है विद्रूपित ज़िन्दगी की व्याकरण 
झाँकिये अपने सभी अंतस ह्रदय में 
किसने नहीं ओढ़ा यहाँ यह आवरण ?
- सुधाकर आशावादी 

बुधवार, 4 सितंबर 2013

रोटी का पहाड़ा

- डॉ. सुधाकर आशावादी 
रोजी रोटी के फेर में 
जूझता एक अदद उत्तरदायित्व 
सुबह से शाम तक भटकता है 
उम्मीदों भरी आँखें लिए 
तब कहीं जुटा पाता है 
अपने घोंसले के परिंदों के लिए 
दाना पानी।
मार्ग में मिलते हैं उसे 
अनेक दिशानायक 
जो दिखाते हैं उसे अनगिन राह 
पढ़ाते हैं पहाड़ा जीवन दर्शन का 
जो बैठे मिलते हैं 
चकाचौंध रोशनी भरे पंडालों में 
धवल वस्त्र धारी / पीत वस्त्र धारी।  
वह नहीं जानता 
कौन है इस सृष्टि का रचनाकार 
वह साकार है या निराकार ?
वह सिर्फ इतना ही समझता है 
जो उसे रोटी का पहाड़ा सिखाएगा
भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों को 
सुकून दिलवाएगा 
वही उसका परमात्मा बन जाएगा। 

मुक्तक :

चैन की नींद आए,सो सोने से पहले 
आओ स्वयं से ही कोई बात कर लें 
भ्रमित हो गए हों किसी दुष्ट से तो 
भरम दूर करके ह्रदय साफ़ कर लें। 
- सुधाकर आशावादी 

रविवार, 18 अगस्त 2013

भावनाएं हर ह्रदय में हैं
कामनाएं हर ह्रदय में हैं
कोई कैसे व्यक्त करता है 
वेदनाएं हर ह्रदय में हैं।
- सुधाकर आशावादी 

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

jwalant prashn

....ज्वलंत प्रश्न 
==============
बहुत बुरा लगता है 
जब दोगुलेपन की बात होती है
सुविधाओं की धर्म और जाति के नाम पर 
बंदरबांट होती है । 
मैं विरोध करूँ भी तो कैसे 
जब सियासत की ये जात होती है ।
मन करता है विरोध करूँ 
क्यों बांटा गया है आदमी को 
जाति और धर्म की संकीर्णताओं में । 
क्यों लिखा जाता है 
उसके नाम के सामने जाति का नाम ?
अगड़ा, पिछड़ा या दलित होने पर 
क्यों अगड़े की अवहेलना करके 
दिया जाता है अन्यों को विशिष्ट सम्मान ?
क्या यही है देश की 
धर्मनिरपेक्ष और जातिनिर्पेक्ष लोकहित भावना 
क्या इसमें नहीं झलकती कोई दुर्भावना ?
फिर काहे लोक कल्याण का दम भरते हो 
जब लोक कल्याण की बात न कोई करते हो । 
जाने वह दिन कब आएगा 
जब विघटनकारी संकीर्णताओं से उबरकर 
देश को न्यायकारी समता 
और समानता की पटरी पर दौड़ाया जायेगा ? 
- सुधाकर आशावादी 

बुधवार, 19 जून 2013

कुछ पंक्तियाँ :

तू नहीं और सही और नहीं और सही 
कुछ तूने भी कही कुछ मैंने भी कही 
कुछ तूने भी सही कुछ मैंने भी सही 
फिर भी कुछ बातें रह गयी अनकही । 
अब रूठ के जाना था तो दगा क्यों दी मुझको 
लिव इन रिलेशन था सिर्फ सजा क्यों मुझको ?
एक सवाल बार बार मेरे जेहन में ये आता है 
मुई सियासत का, रिश्तों से क्यों ना नाता है ?
मुक्तक :
आज बौने हो गये हैं देह के रिश्ते 
और अपनापन सहेजे नेह के रिश्ते 
स्वार्थ की आँधी, प्रलय, तटबंध टूटे 
दूर अपनों से हुए हैं गेह के  रिश्ते ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

गुरुवार, 6 जून 2013

शुभ-रात्रि :
======
आज मुझे फिर अपना बचपन याद आया है 
नन्ही यादों ने फिर आकर के मुझे हंसाया है 
बचपन की शैतानी फिर आँखों में तैर गयी 
गली का नुक्कड़ कोना कोना आज सुहाया है ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

रविवार, 2 जून 2013

कविता:
कहानी औरत की 
- डॉ.सुधाकर आशावादी 

कूड़े के ढेर पर बैठी 
न जाने कब से नहीं नहाई होगी 
कूड़े से न सही पर 
मैल से चिकटी वह 
अपनी धवल दन्त पंक्ति दिखाती है 
और उसी ढेर पर बैठकर खाती है 
जो भी मिल जाय, जिसे खाया जा सके 
उसे सिर्फ पेट भरने के लिए ही 
कुछ न कुछ खाना है 
न कि कुछ खाने के लिए । 
वह बीनती है कूड़ा 
और बेखबर रहती है 
मैली कुचैली निगाहों की 
दरिंदगी भरी कामनाओं से । 
वह नहीं जानती 
कि कितनी कीमती होती है 
किसी अबला की इज्ज़त -आबरू 
क्या होता है आबरू लुटने का अंजाम 
कैसे उफनता है 
जन भावनाओं का लावा 
और कानून को कठोर बनवाता है 
आबरू लुटने पर मुआवजा भी दिलवाता है 
लगता है वह अबला नहीं 
क्योंकि उसकी आबरू ही नहीं होती 
इसलिए उसके लिए 
इज्ज़त आबरू की बात बेमानी है 
यानि यह भी 
एक औरत की कहानी है ॥  

बुधवार, 22 मई 2013

मुक्तक
क्यों भ्रमित होता अभागे तू लकीरों से
क्यों तू खुशियाँ मांगता है आज पीरों से
सुख सभी भीतर हैं तेरे ढूंढ भीतर ही
कैसे जीते है धरा पर, पढ़ फकीरों से ॥
- सुधाकर आशावादी 

मंगलवार, 14 मई 2013

मुक्तक :
नींद के आगोश में मैं आज सोना चाहता हूँ 
प्रीत के आगोश में मैं आज खोना चाहता हूँ 
नींद आये तो मिटेगी आज आँखों की थकन 
मीत के सपनों में खुद को मैं डुबोना चाहता हूँ ।। 
- सुधाकर आशावादी 

सोमवार, 13 मई 2013

मुक्तक =============
हैं अधूरी हसरतें कब पूर्ण होंगी ?
कष्ट में कुछ राहतें कब पूर्ण होंगी ?
हो भले संताप पर उम्मीद रखिये
वक्त बदलेगा चाहतें पूर्ण होंगी ॥
= सुधाकर आशावादी =======

रविवार, 12 मई 2013

जीवन में नहीं सादगी,दुष्कर्मी विनियोग
जाने जग में आ गए  कैसे कैसे लोग ?
- आशावादी 
मुक्तक
जब जब बगिया में एक कोयल गाएगी
तब-तब उपवन की कोंपल हर्षाएगी
कोमल कलियाँ गीत लिखेंगी अधरों पर
हरियाली जीवन के गीत सुनाएगी ॥
- आशावादी 

शुक्रवार, 10 मई 2013

काँच का घर 
++++++++
चोट खायेगा तो चटख जायेगा 
ये काँच का घर है । 
मोम से क्यों बनाया इसे 
ये आँच का घर है । 
सरपरस्ती इसे भी चाहिए 
ये जाँच का घर है । 
द्रोपदी अब सुरक्षित नहीं 
ये पाँच का घर है ॥ 
- सुधाकर आशावादी 

मंगलवार, 7 मई 2013

muktak

एक मुक्तक प्रस्तुत है -
शुभ-रात्रि:
रात आती है तो मिट जाती है दिन की थकन 
न भोर की चिंता न याद है अब पेट की अगन  
चलो भूल जाएं दिन में बीते जो  गिले शिकवे 
मिले सौगात स्वप्निल ललके जीने की लगन ॥ 
---------आओ चले नींद के मीठे सफ़र पर------
- सुधाकर आशावादी 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

समाज के
दोगले चरित्रों को देखकर
यही लगता है
गिरगिट
घर घर में बसता है ।
- सुधाकर आशावादी 

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

एक सोच:
छोड़ो ...जाने भी दो ,,क्यों परेशान होते हो 
उसकी बातों से ...उसकी ह्रदय बींधती आलोचनाओं से 
---क्या करे ..बेचारा स्वयं से ही खफा है 
उसे सहारा दो ...उसकी आलोचनाओं का 
सकारात्मक अभिव्यक्ति से ज़वाब दो 
क्योंकि सभ्य समाज में ईंट का जवाब पत्थर नहीं होता ।
- सुधाकर आशावादी 
मुक्तक:
मन करता है मैं उपवन से फूल चुनूँ 
फूलों को ही चुनूँ नहीं मैं शूल चुनूँ 
सभी चाहते चुनना केवल फूलों को 
कौन सहेगा दर्द बाँटते शूलों को ?

रविवार, 17 फ़रवरी 2013


मन करता है -++
+++++++++++
मन करता है मैं उपवन से फूल चुनूँ 
फूलों को ही चुनूँ नहीं मैं शूल चुनूँ 
सभी चाहते चुनना केवल फूलों को 
कौन सहेगा दर्द बाँटते शूलों को ?

मुलाकात:
कोई तो बात है 
ग़लतफ़हमी दूर नही होती 
कोई पास नहीं होता 
तुम दूर नहीं होती ।
कितना भी मन को समझाऊं 
नादान फिर भी नहीं समझता 
कहता है -
चाहे पल भर की हो मुलाक़ात 
कभी अधूरी नहीं होती ।
- सुधाकर आशावादी 

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

मुक्तक:
व्यक्ति की पूजा यहाँ है कर्म को न पूजते
हैं कुटिल मन-भावनाएं मर्म को न पूजते
आज उपदेशक बहुत देते हैं परउपदेश जो
है अधर पर धर्म लेकिन धर्म को न पूजते ।।
- सुधाकर आशावादी 

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013


मुक्तक  :
कौन सुनाये अब कबीर सी खरी-खरी 
कौन सुनाए गोपी की गाथा पीर भरी 
हैं विलग सी संवेदनायें कवि ह्रदय में  
होगा नव-सृजन नव-रचना क्षीर भरी ।।
- सुधाकर आशावादी  

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013


मुक्तक :
साँप-सीढ़ी, ऊँच- नीच या छुआ-छाई 
बचपन में न बात समझ में कुछ आई 
जब से होश संभाला कुछ हम बड़े हुए 
हमें  जिन्दगी बस इनमें उलझी पाई ।।
- सुधाकर आशावादी 

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

जिंदगी की पुस्तक में क्या मैं आज लिखूँ
अपना कल और आज का अहसास लिखूँ
सोचता हूँ मुश्किल है सच को सच कहना
सो अच्छा लगता है मुझे अब चुप रहना  ।।
- सुधाकर आशावादी

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013


बसन्त की चाह में ;;;;
==============
जब पतझर आगमन से झरेंगे शाख से पत्ते 
तब-तब हरा होने के लिए मचलेगी कामनाएं 
फिर आएगा मधुमास बासन्ती वसन पहिन 
तब आएगी याद भरेगी गंध हमारी श्वांसों में । 
मत आना तुम कभी सामने अब मेरे 
बरसों बीते याद ह्रदय में बसी हुई 
यदि हुई साकार समझ न पाऊंगा 
तुम हो या मेरा मन है भ्रमित कहीं ?
तुम रहना बस मेरी मधुरिम यादों में  
मेरे अन्तस के प्रीत भरे मधुमासों में 
चाहूँ हर पल रचूँ तुम्हारे गीत प्रिये 
सो सपनों में आते रहना मीत प्रिये ।।
- सुधाकर आशावादी 
एक सच यह भी :
मैंने यूँ ही सच कह दिया मज़ाक मज़ाक में 
और तुम बुरा मान गए 
सच ...आज का सच ही मज़ाक है 
क्योंकि झूठ जो बन चुका है 
आज का हसीन सच 
सो कड़वा सच अपनी कडवाहट में ही 
दम तोड़ने हेतु विवश है 
तो बताओ ...आखिर क्यूँ तुम्हे मजाक में भी 
सच स्वीकार क्यों नहीं ....?
- सुधाकर आशावादी 
मुक्तक  :
चाँद निहारा मैंने अपने घर-आँगन से 
भरे अमृत के कलश उसी के दर्शन से 
धवल चाँदनी ने चंदा से मुझे मिलाया 
प्रीत पगी यादों ने सारी रात जगाया ।।
- आशावादी    
chaand nihara maine apne ghar aangan se 
bhare amrit ke kalash usi ke darshan se 
dhawal chaandni ne chanda se mujhe milaya 
preet pagi yadon ne sari raat jagaya .
- SUDHAKAR AASHAWADI 
मुक्तक :
हम रहे कुछ विवादों में उलझे हुए 
कहते स्वयं को रहे हम सुलझे हुए 
यदि तुम गलत हम भी सुधरे नहीं 
आओ देखें तनिक पीछे मुड़ते हुए ।।
- सुधाकर आशावादी 
+++++++++
हिचकियाँ पास लाती हैं यादें तेरी 
कनखियाँ भी बुलाती हैं यादें तेरी 
घूमता हूँ कभी प्रेम उपवन में मैं 
पुष्प गंधों से आती हैं यादें तेरी ।।
-  सुधाकर आशावादी 

सोमवार, 28 जनवरी 2013


शुभ-रात्रि:++
++++++++
तुम्हे नहीं आना मत आओ ख़्वाबों में 
मैं तो सोऊंगा याद तुम्हारी ही लेकर 
मिलना हो तो आ जाना तुम ख़्वाबों में 
पर न आना अपना सत्य कभी खोकर ।।
- सुधाकर आशावादी 

शुभ-रात्रि:++
++++++++
तुम्हे नहीं आना मत आओ ख़्वाबों में 
मैं तो सोऊंगा याद तुम्हारी ही लेकर 
मिलना हो तो आ जाना तुम ख़्वाबों में 
पर न आना अपना सत्य कभी खोकर ।।
- सुधाकर आशावादी 

शुभ-रात्रि:++
++++++++
तुम्हे नहीं आना मत आओ ख़्वाबों में 
मैं तो सोऊंगा याद तुम्हारी ही लेकर 
मिलना हो तो आ जाना तुम ख़्वाबों में 
पर न आना अपना सत्य कभी खोकर ।।
- सुधाकर आशावादी 

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013


     क्या सोचकर सौंपा गणतन्त्र ?
- डॉ.सुधाकर आशावादी
 
देश हो अपना,यही था सपना सदा रहे स्वतंत्र  
क्या सोचकर वीर शहीदों ने सौंपा हमें गणतंत्र ?
 
नहीं भान था उन्हें कि सत्ता दिखलाएगी खेल 
नहीं चाहिए भाईचारा न ही आपस में कोई मेल 
उसे चाह थी कुर्सी की सो अलगावी फसलें बोई 
तभी कलंकित लहू हुआ उनकी आत्मा थी रोई 
भगत सिंह और सुभाष वीर को भूल गए सब 
याद स्वार्थ है याद है कुर्सी और याद है मंत्र-तंत्र 
क्या सोचकर वीर शहीदों ने सौंपा हमें गणतंत्र ?

देश की लुटती अब मर्यादा मर्यादित न राम हैं
नैतिकता व स्वछंदता में अब भीषण संग्राम है 
बात-बात में लाठी गोली खन्जर और तमंचे हैं 
मर्यादा अब तार-तार है खून सने सब पञ्जे हैं 
रिश्तों की मर्यादा भूले मानवता के सब हत्यारे 
सत्ता की खातिर नित बुनते नेता अब षड्यंत्र  
क्या सोचकर वीर शहीदों ने सौंपा हमें गणतंत्र ?

दिशानायकों के चिंतन में नहीं दिशा का कोई वास 
सत्ता कुर्सी जोड़ तोड़ के होते हैं निसदिन अभ्यास 
देश का करते ये बंटवारा लेकर जाती-धर्म का नाम  
तब भी इनको चैन न आता उलटे सारे इनके काम 
अब विकास की बात नहीं बात है तो बस दाम की 
जनता को ही चक्रव्यूह में फांसने का फूँके हैं मन्त्र 
क्या सोचकर वीर शहीदों ने सौंपा हमें गणतंत्र ?

सोमवार, 21 जनवरी 2013

मुक्तक
आदमी है नहीं आदमी आजकल
जातियों में बंटा आदमी आजकल
तुम जगत में सदा ऐसी बातें करो
आदमी सा लगे आदमी आजकल ।।
- सुधाकर आशावादी
=======================
हदों के भीतर :
अपनी हदों में मैं रहूँ
अपनी हदों में तुम रहो
अपनी हदें न मैं तजूं
अपनी हदें ने तुम तजो
फांसला इतना रहे
तुममे और मुझमे यहाँ
कर्म ऐसे हों कि जिससे
न तुम लजाओ
न हम लजाएं ।।
-सुधाकर आशावादी 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

muktak

मैंने कब चाहा कि तुमको अपना न मानूं
मैंने माना तुमको अपना,अपना ही ध्यानू
तुमसे ही सीखा हैं मैंने प्रीत का नया तराना
प्रीत परिभाषा में कैसे जीवन का अफसाना ।।
- सुधाकर आशावादी 
+++++++++++++
++गुस्ताखी माफ़ ++
+++++++++++++
वो जो आइना हज़ार बार देखता है 
उस चेहरे को बार-बार बदल कर 
चेहरे की किताब पर दिखलाता है 
वह भूल जाता है- 
चेहरा नहीं है उसकी वास्तविक पहिचान 
विचारों से उसका सारा जहान ।
सो-
अपने आप से तू प्यार कर
एक बार नहीं हज़ार बार कर
मगर ध्यान रहे इतना
अपनी सूरत पर मत इतरा
सूरत में तूने क्या है गढ़ा
यह तो किसी की निशानी है
सूरत तो तेरी जानी पहिचानी है
पर तेरी कहानी का सार
तेरी सीरत बताएगी
तेरी सूरत तब काम नहीं आएगी ।।
- सुधाकर आशावादी

बुधवार, 9 जनवरी 2013

मैं कलम का पुत्र करता हूँ कलम की वन्दना 
मैं सृजन का सूत्र उर में है सृजन की कामना 
मैं जगत अनुयायी लेकिन भीड़ का न अंश हूँ 
प्रीत-पथ पर अग्रसर ले नेह की प्रस्तावना ।।
=================आशावादी