मित्रों फिर मैं उदास दिखता हूँ। राष्ट्र-पूजा मेरा मेरी इबादत हैं
रोज मैं आमो-ख़ास लिखता हूँ।
खूब नफ़रत मुझे सियासत से
फिर भी मैं आस पास फिरता हूँ। भूखों की भूख लिख लिख कर
मैं तो काजू बादाम चरता हूँ। भूख के चित्र मुझको भाते हैं
संग उनके मैं रोज तरता हूँ।
- सुधाकर आशावादी
गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015
भूख से बेबस गरीबी दिन में सपने देखती है सिर्फ सपनों में सही वह रोटी से ही खेलती है अब सियासत की तिजारत बढ़ गई इस तरह सपनों का देकर छलावा हसरतों से खेलती है। - सुधाकर आशावादी
मुक्तक :
है खुला बाज़ार खुलकर शर्म अपनी बेचिए है सियासत नग्न खुलकर शर्म अपनी बेचिए बेहया बेशर्म बदनीयत किसे कहते हैं दोस्त ढीठ बनकर मुस्कराकर शर्म अपनी बेचिए। - सुधाकर आशावादी