बुधवार, 7 सितंबर 2016

लघुकथा :
                                                               तमाशा

मदारी अपना थैला भिन्न भिन्न लुभावनी चीजों से भरने लगा।  उसे तमाशा दिखाने जी जाना था।
भीड़ सम्मुख थी , उसने डुगडुगी बजाई। भीड़ कौतुहल से मदारी के करतब देखने लगी। मदारी ने पहले लेपटॉप निकाला , भीड़ ने तालियाँ बजाई , फिर कन्या विद्या धन , उसके बाद अल्पसंख्यकों की पहिचान करने के लिए हाथ उठवाये।  भीड़ तमाशबीन थी। वह मदारी की चाल समझने लगी , कि मदारी उन्हीं के पैसे से करतब दिखा रहा है।
अंततः मदारी का खेल छोड़कर वे जाने लगे, जिनके लिए उसने लुभावनी चीजे थैले से निकाली ही नहीं थी।  मदारी भी कब हार मानने वाला था। भीड़ के सम्मुख प्रस्ताव रखा - 'यदि मुझे अगले बरसों में भी तमाशा दिखाने की मंजूरी दोगे , तब मैं सभी के लिए अपने पिटारे से स्मार्टफोन निकाल कर दूंगा।'
भीड़ आंकलन करने लगी। क्या स्मार्टफोन के बदले मदारी को मतलब सिद्ध करने का एक और अवसर दिया जाय या नहीं ? तमाशा अब भी जारी था। मदारी के अन्य परिजन भी अलग अलग नुक्कड़ों पर अपनी पोटली लिए डुगडुगी बजाने में व्यस्त थे।
- सुधाकर आशावादी

रविवार, 24 जुलाई 2016

रचनाकार ....

तुम किसी के बंधुआ कब से हो गए ?
तुम तो प्रकृति के अंश हो / वंश हो
तुम्हें रचने हैं प्रकृति के गीत / छंद / मुक्तक
जो देते हों प्रकृति के आकर्षक सौन्दर्य की उपमाएं
मन में जागृत करते हों जीवन के प्रति आकर्षण
गतिशीलता की महत्वाकांक्षाएं .
तुम देह नहीं विचार हो
विचारों से विचारों का मिलन कराने वाले आदर्श सूत्रधार
तुम कहाँ फंस गए
जाति- बिरादरी, धर्म- परम्पराओं ,
आस्थाओं / अनास्थाओं के फेर में .
तुम्हारी रचनाधर्मिता
प्रतिविम्ब है तुम्हारे वैचारिक सौन्दर्य का .
सत्यम शिवम् सुन्दरम् के उद्घोष का .
तुम सीमाओं से परे हो
अपना अर्थ जानो
अपने विराट अस्तित्व को पहचानो
संकीर्ण चिंतन में सिमटना
तुम्हारी उड़ान में सदैव बाधक था और रहेगा .
सो हे रचनाकार खुलकर उड़ो
मुक्त गगन में /
और बनो सन्देश वाहक -
अब कोई किसी का बंधुआ नहीं रहेगा
चालाक बहेलिये अब किसी को
अपनी मनोकामनाओं के जाल में फंसाने में
सफल नहीं होंगे .
@ डॉ. सुधाकर आशावादी


शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

मुक्तक
जाने कितने जतन किये और बोले कितने झूठ
धन की चाहत रही अधूरी, ज्यों कटे वृक्ष के ठूँठ
धोखा दिया स्वयं को, न रिश्तों का सम्मान किया
जाने किस करवट अब बैठे अपने भाग्य का ऊँट ?
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 23 जून 2016

चाहतें कहती हैं मुट्ठी में भर लूं सारे जहाँ की खुशियाँ
दिमाग की ख्वाहिश है, मिल बाँट कर दोगुना कर लूं .
- सुधाकर आशावादी

रविवार, 5 जून 2016

केवल बिहार नहीं शिक्षा की बदहाली पूरे देश में हैं। सिर्फ माध्यमिक शिक्षा में नहीं , प्राथमिक तथा उच्च शिक्षा में भी बुरा हाल है।  उच्च शिक्षा में कुछ छात्र एक सामान्य वाक्य भी नहीं लिख पाते।

मंगलवार, 19 जनवरी 2016

मुझे देश में कहीं भी सहिष्णुता नजर नहीं आती। स्वस्थ होते हुए भी मुझे बैसाखियों की दरकार है।मुझे अपने मतानुसार  स्वच्छंद  रहने का अधिकार है। समान नागरिक संहिता का मैं विरोधी हूँ। मेरे हिसाब से आरक्षण का लाभ उस व्यक्ति तक न पहुंचे,जिस तक वह पहुंचना चाहिए।  आरक्षण केवल मेरे परिवार तक ही सीमित रहना चाहिए। सवर्णों ने देश में आतंक मचा रखा है। यदि आरक्षण न होता तो हम सांसे ही नहीं ले पाते। भला हो कुछ सवर्ण जयचंदों का जो हमारे सुर में सुर मिलाते हैं। हमारे समर्थन में अपनी डी.लिट् की उपाधियाँ लौटाते हैं। सारा खेल इन सवर्णों ने बिगाड़ा है। शिक्षा, साहित्य,व्यापार, सरकार , अरे कोई जगह औरों के लिए भी छोड़ोगे ? सब पर अधिकार जमाए रहोगे ? ऐसे में हम क्या करें , विदेश चले जाएं , मगर वहाँ तो आरक्षण की बैसाखियाँ नहीं हैं। किसके भरोसे रहेंगे ? आओ सब मिलकर सहिष्णुता का विरोध करें, स्वयं को असहिष्णु दर्शाएं। प्रगतिशील कहलायें।
- सुधाकर आशावादी
चलो फिर असहिष्णु होने की बात करें
सिर्फ यही आज का सियासी फरमान है।
- सुधाकर आशावादी
देश में स्वार्थपरता इस हद तक बढ़ चुकी है कि किसी गैर ब्राह्मण के द्वारा आत्महत्या किये जाने पर सारा दोष ब्राह्मणवाद के मत्थे  मंढने का कुचक्र चला दिया जाता है।  सवाल यह है कि आरक्षण के चलते योग्यता की उपेक्षा पर यदि कोई ब्राह्मण आत्महत्या करने पर विवश हो , तो वह किसके विरुद्ध आंदोलन चलाये ?
- सुधाकर आशावादी

सोमवार, 18 जनवरी 2016

पुस्तक मेला संपन्न हुआ। कुछ आत्म मुग्ध रचनाकारों ने अपने लेखन को सराहा। अपने आपको विशिष्ट लेखक की संज्ञा देकर जता दिया कि कुछ साहित्यिक विधाएं केवल उन्हीं की बपौती हैं। कुछ नामधारी सहज रचनाकारों के विचारों ने उनके भीतर के रचनाकार के दर्शन कराये। बहरहाल फेसबुक मित्रों ने अनेक संभावनाओं को जन्म देकर हुंकार भरी है कि लेखन किसी ख़ास की ही बपौती नहीं रह गया है। चिंतन का आकाश असीम है।
- सुधाकर आशावादी

बुधवार, 13 जनवरी 2016

मैंने महसूस किया है अतीत और वर्तमान के सशक्तिकरण को -
पहले संकोच होता था कुछ कहने में भी
अब कर गुजरने से भी डर नहीं लगता ।
- सुधाकर आशावादी
सशक्तिकरण नकारात्मक भी हो सकता है , विध्वंस भी इसी के कारण होते हैं। राष्ट्र चिंतन के सम्मुख आजकल ऐसे ही सशक्तिकरण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। स्वयं को असहिष्णु सिद्ध करने की घटनाएं भी कहीं इसी परिधि में तो नहीं आती ?
पर्व खुशियों के सभी हैं क्या लोहड़ी क्या पोंगल
मन मयूरा नाच रहा, तो क्यों न हों हम पागल
अपनी खुशियाँ मित्रों हम अपने ही भीतर खोजें   
अपने सत्कर्मों से मित्रों हो जाएं अपने कायल।।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

किस किस को कैसे समझाएं :
रचनाकार किसी भी रचना को अपने नजरिये से लिखता है। पाठक कौन से नजरिये से उसे पढता है , पाठक जाने। दोनों के नजरिये अनुकूल ही हो , इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता।
- सुधाकर आशावादी
इंटरनेट के व्यवधान के कारण विगत अनेक दिवसों से पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ। विश्व पुस्तक मेले में साहित्यकारों और किताबों की भीड़ में अनेक गुमशुदाओं को खोज रहा था, मिले वो जो यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं। अख़बारों में न सही फेसबुक पर ही सही , किन्तु कुछ वहाँ होते हुए भी दुर्लभ दर्शनीय बने रहे।  बाद में चेहरे की किताब पढ़ी तो पता चला कि वे भी वहीँ थे।
- सुधाकर आशावादी