शनिवार, 20 दिसंबर 2014

आज स्वयं से ही कुछ बात करें
बात भी करें , मुलाकात भी करें
आखिर किस दिशा जाना है हमें
क्यों भागमभाग कर रहे हैं हम ?
- सुधाकर आशावादी

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2014

मुक्तक  :

अँखियों से लरजी शर्म और छुअन का स्पंदन
आँखों आँखों होता मन से वन्दन अभिनन्दन
दूर हो गया अब स्वयं से स्वयं का ही बतियाना
जाने कैसे लुप्त हुआ रिश्तों का पावन चन्दन ।।
- सुधाकर आशावादी

बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

कैसी संध्या कैसा सुप्रभात :
दूध से वंचित दुधमुंहे बच्चे / गौ हत्या से देश में होती गायों की कमी। अन्य दुधारू पशुओं का अंधाधुंध कटान।
गौ वंशीय पशुओं के हत्यारों द्वारा पुलिस चौकियों पर हमला। कानून के रखवालों के लिए स्वयं की रखवाली ही कठिन हो गयी है , सत्ता गौ हत्यारों की संरक्षक बनकर गूंगी, अंधी, बहरी है। कम्बख्तों ऐसी भी क्या सियासत , जो दुधमुंहे बच्चों के मुँह से दूध भी छिनवा रहे हो ?
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 14 अक्तूबर 2014

देश की पहिचान किस से कौन जाने कौन समझे
देश की अब शान किस से कौन जाने कौन समझे
देश का अपमान जिनकी है यहाँ कुत्सित सियासत
देश का अभिमान किस से कौन जाने कौन समझे ?
- सुधाकर आशावादी

शनिवार, 27 सितंबर 2014

मुक्तक 
गिलास भरा है आधा या यह आधा खाली है।
नकारा चिंतन का मित्रो कोई नही रखवाली है
अच्छा है हम जो भी देखें अच्छा ही देखें मित्रों
सृजनशीलता से ही मित्रों जीवन में खुशहाली है।।
- सुधाकर आशावादी

सोमवार, 22 सितंबर 2014

मुक्तक

राष्ट्र चेतना जन जन में होनी बहुत जरूरी है
देश की खातिर जीना मरना मित्रों मजबूरी है
स्नेहभावी जीवन यापन यही हमारा दर्शन है
कोई इसे कायरता समझे,इसमें नामंजूरी है।।
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

सियासत केवल बहेलिये का जाल है , जो येन केन प्रकारेण सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है। सवाल यह है कि जब तक देश में शिक्षा का सही प्रचार प्रसार नहीं होगा तथा शिक्षा मदरसों और एकपक्षीय कट्टरपंथियों में बंटी रहेगी तब तक स्वस्थ लोकतंत्र की कल्पना सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही नहीं समूचे देश में करना निरर्थक है।
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

मुक्तक 

देश के कोने कोने में सबसे कह दो आबाद रहें 
मानवता की रक्षा का पाठ उन्हें बस याद रहे। 
अपनी सीमाओं में विस्तृत भारत है घर अपना
यही यथार्थ है मित्रों नहीं तनिक भी यह सपना  
समय चुनौती का है मानवता का सम्मान करो 
कटी जली व भूली बिसरी बातों का न भान करो 
स्वर्ग धरा का कैसे संवरे कैसे हो मानव कल्याण   
बुरे वक्त में ही होती है अपने अपनों की पहचान। 

बुधवार, 27 अगस्त 2014

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहींकाम कुछ भी नहीं ...

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं
काम कुछ भी नहीं ...
: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं काम कुछ भी नहीं फिर भी फुर्सत नहीं अंधी गलियों में जाने क्या ढूंढते हम रहे   अर्थ की चाह में हम को फ...

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहींकाम कुछ भी नहीं ...

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं
काम कुछ भी नहीं ...
: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं काम कुछ भी नहीं फिर भी फुर्सत नहीं अंधी गलियों में जाने क्या ढूंढते हम रहे   अर्थ की चाह में हम को फ...

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहींकाम कुछ भी नहीं ...

sudhasha: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं
काम कुछ भी नहीं ...
: आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं काम कुछ भी नहीं फिर भी फुर्सत नहीं अंधी गलियों में जाने क्या ढूंढते हम रहे   अर्थ की चाह में हम को फ...
आज के दौर में कुछ भी फुर्सत नहीं
काम कुछ भी नहीं फिर भी फुर्सत नहीं
अंधी गलियों में जाने क्या ढूंढते हम रहे  
अर्थ की चाह में हम को फुर्सत नही।
= सुधाकर आशावादी

सोमवार, 25 अगस्त 2014

मुक्तक :

भटके कदमों से कैसे चल पायेंगे
अपनी मंजिल कैसे यूँ हम पाएंगे
छोड़ो अपने सभी आग्रह पूर्वाग्रह
यूँ जीवन नौका हम खेते जाएंगे।
- सुधाकर आशावादी

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

मुक्तक :

कुसूर आईनो का नहीं जो आईने बदल दें
सच तो यह है हमने उनमें झाँका ही नहीं
गुड्डे गुड़िया के खेल यहाँ अब कौन खेले
प्रीत के खेल का मर्म हमने जाना ही नहीं।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 15 जुलाई 2014

मुक्तक
किसे दोष दूँ किस किस के गुनाह गिनाऊँ
गुनहगार मैं भी कम नहीं कहाँ पनाह पाऊँ
अंगुलियाँ उठाना तो हर किसी को आता है
स्वयं पर उठी अँगुलियों को कहाँ ले जाऊँ ?
- सुधाकर आशावादी

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

चुनाव चुनाव खेल रहा पर महँगाई का आलम है
महंगे महंगे सौदे सारे हाँ महँगाई का परचम है
सत्ता और व्यापारी मिलकर लूट देश को खायेंगे
चन्दे की हो गई उगाही अब लूट में साथ निभाएंगे।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 18 मार्च 2014

मुक्तक :

हार है न जीत, यही तो ज़िंदगी का गीत है।
मृत्यु क्षण तक यहाँ पर ज़िंदगी से प्रीत है।
राह भले कितनी कठिन हो, चलना ज़रूरी है 
डर से आगे ही सदा मिलती सभी को जीत है।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 11 मार्च 2014

मुक्तक

ज़िन्दगी में वक़्त कितना, कौन जाने
ज़िन्दगी में कौन कितना, कौन जाने
फिर भी हम आँखों में नफ़रत पालते हैं
प्यार को है वक़्त कितना कौन जाने ?

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

sudhasha: मुक्तक  कर्म पथ का हूँ पथिक,न तुम मुझे आवाज़ दो पक...

sudhasha: मुक्तक
 कर्म पथ का हूँ पथिक,न तुम मुझे आवाज़ दो पक...
: मुक्तक   कर्म पथ का हूँ पथिक,न तुम मुझे आवाज़ दो पक्षधर मैं परिवर्तन का, तुम नया आगाज़ दो हो मेरा संकल्प पूरा मन कामना मेरी यही ...
मुक्तक
 
कर्म पथ का हूँ पथिक,न तुम मुझे आवाज़ दो
पक्षधर मैं परिवर्तन का, तुम नया आगाज़ दो
हो मेरा संकल्प पूरा मन कामना मेरी यही है
सृजनपथ पर साथ दे, तुम नया अहसास दो। 
- सुधाकर आशावादी

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

:: मुक्तक ::

एक चेहरा फेसबुक पर दूसरा जो घर में है
एक अधर मुस्कान धारे, दूसरा अधर में है
बात चेहरे की है चेहरा कौन किसका देखता
एक है दूजो की खातिर दूसरा अंतस में है।
- सुधाकर आशावादी

गुरुवार, 27 फ़रवरी 2014

मुक्तक

युवा अवस्था में लगे जनम जनम की प्यास
प्रौढ़ावस्था में ही मिले सदा तृप्ति का आभास
तृप्ति का आभास कि जीवन सार बताये
यह जीवन है अनमोल व्यर्थ न इसे गंवाएं।
कहे 'सुधाकर' बचपन यौवन फिर न आये
मगर बुढ़ापा जिसमे अनुभव खान समाये।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

      :: : : ज़िंदगी की किताब :::::

ज़िन्दगी की किताब मैं सुबहो शाम लिखता हूँ
कभी कुछ ख़ास तो कभी कुछ आम लिखता हूँ
सुबह कर्म पथ पर अग्रसर मैं काम लिखता हूँ
शाम को बिस्तर पे होता हूँ , आराम लिखता हूँ
फिर भी रहता शेष जिसको मैं लिख नहीं पाता
अधूरेपन के किस्से ही तो मैं तमाम लिखता हूँ ।
- सुधाकर आशावादी

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2014




जीवन तो चलता रहता है कभी धूप में कभी छाँव में
दिनचर्या चलती रहती है कभी शहर में कभी गाँव में
आना-जाना सुख-दुःख सारे रहते पल-पल जीवन संग
पतवार नियन्ता थामे सबकी, तुम तो जीवन नाव में।
- सुधाकर आशावादी

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

आशादीप जलाएं
जाओ नहीं सुननी है मुझे तुम्हारी कोई भी बात
तुम्हे नहीं सौंपनी है अब अपने प्यार की सौगात
तुम अपनी देह रूप सौंदर्य पर इतना न इतराओ
अपने यथार्थ को समझ इस धरा पर उतर आओ।

तुम सच जानती हो उम्र झूठ की लम्बी नहीं होती
कृत्रिम औपचारिकताएं कभी सम्वेदना नहीं बोती।
सो क्यों रहती हो भ्रमित सी इस मृगमरीचिका में
कुछ नहीं शेष छीजते सम्बन्धों की विभीषिका में। 

अमावस से रीते रिश्तों में आओ आशादीप जलाएं
पूनम सी रातों सा चहकें प्रीत राह पर कदम बढ़ाएं।
- सुधाकर आशावादी

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

मुक्तक :
दिनचर्या कैसी हो मेरी यह तो मैं भी जानता हूँ
पर आधुनिकता में मित्रों सत्य न स्वीकारता हूँ
आत्मीयता से विलग अब खोखला सा आचरण 
दूसरों के अनुकूल चल कर मैं स्वयं से हारता हूँ।
- सुधाकर आशावादी