मंगलवार, 19 जनवरी 2016

मुझे देश में कहीं भी सहिष्णुता नजर नहीं आती। स्वस्थ होते हुए भी मुझे बैसाखियों की दरकार है।मुझे अपने मतानुसार  स्वच्छंद  रहने का अधिकार है। समान नागरिक संहिता का मैं विरोधी हूँ। मेरे हिसाब से आरक्षण का लाभ उस व्यक्ति तक न पहुंचे,जिस तक वह पहुंचना चाहिए।  आरक्षण केवल मेरे परिवार तक ही सीमित रहना चाहिए। सवर्णों ने देश में आतंक मचा रखा है। यदि आरक्षण न होता तो हम सांसे ही नहीं ले पाते। भला हो कुछ सवर्ण जयचंदों का जो हमारे सुर में सुर मिलाते हैं। हमारे समर्थन में अपनी डी.लिट् की उपाधियाँ लौटाते हैं। सारा खेल इन सवर्णों ने बिगाड़ा है। शिक्षा, साहित्य,व्यापार, सरकार , अरे कोई जगह औरों के लिए भी छोड़ोगे ? सब पर अधिकार जमाए रहोगे ? ऐसे में हम क्या करें , विदेश चले जाएं , मगर वहाँ तो आरक्षण की बैसाखियाँ नहीं हैं। किसके भरोसे रहेंगे ? आओ सब मिलकर सहिष्णुता का विरोध करें, स्वयं को असहिष्णु दर्शाएं। प्रगतिशील कहलायें।
- सुधाकर आशावादी
चलो फिर असहिष्णु होने की बात करें
सिर्फ यही आज का सियासी फरमान है।
- सुधाकर आशावादी
देश में स्वार्थपरता इस हद तक बढ़ चुकी है कि किसी गैर ब्राह्मण के द्वारा आत्महत्या किये जाने पर सारा दोष ब्राह्मणवाद के मत्थे  मंढने का कुचक्र चला दिया जाता है।  सवाल यह है कि आरक्षण के चलते योग्यता की उपेक्षा पर यदि कोई ब्राह्मण आत्महत्या करने पर विवश हो , तो वह किसके विरुद्ध आंदोलन चलाये ?
- सुधाकर आशावादी

सोमवार, 18 जनवरी 2016

पुस्तक मेला संपन्न हुआ। कुछ आत्म मुग्ध रचनाकारों ने अपने लेखन को सराहा। अपने आपको विशिष्ट लेखक की संज्ञा देकर जता दिया कि कुछ साहित्यिक विधाएं केवल उन्हीं की बपौती हैं। कुछ नामधारी सहज रचनाकारों के विचारों ने उनके भीतर के रचनाकार के दर्शन कराये। बहरहाल फेसबुक मित्रों ने अनेक संभावनाओं को जन्म देकर हुंकार भरी है कि लेखन किसी ख़ास की ही बपौती नहीं रह गया है। चिंतन का आकाश असीम है।
- सुधाकर आशावादी

बुधवार, 13 जनवरी 2016

मैंने महसूस किया है अतीत और वर्तमान के सशक्तिकरण को -
पहले संकोच होता था कुछ कहने में भी
अब कर गुजरने से भी डर नहीं लगता ।
- सुधाकर आशावादी
सशक्तिकरण नकारात्मक भी हो सकता है , विध्वंस भी इसी के कारण होते हैं। राष्ट्र चिंतन के सम्मुख आजकल ऐसे ही सशक्तिकरण को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। स्वयं को असहिष्णु सिद्ध करने की घटनाएं भी कहीं इसी परिधि में तो नहीं आती ?
पर्व खुशियों के सभी हैं क्या लोहड़ी क्या पोंगल
मन मयूरा नाच रहा, तो क्यों न हों हम पागल
अपनी खुशियाँ मित्रों हम अपने ही भीतर खोजें   
अपने सत्कर्मों से मित्रों हो जाएं अपने कायल।।
- सुधाकर आशावादी

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

किस किस को कैसे समझाएं :
रचनाकार किसी भी रचना को अपने नजरिये से लिखता है। पाठक कौन से नजरिये से उसे पढता है , पाठक जाने। दोनों के नजरिये अनुकूल ही हो , इसकी गारंटी कोई नहीं ले सकता।
- सुधाकर आशावादी
इंटरनेट के व्यवधान के कारण विगत अनेक दिवसों से पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ। विश्व पुस्तक मेले में साहित्यकारों और किताबों की भीड़ में अनेक गुमशुदाओं को खोज रहा था, मिले वो जो यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहते हैं। अख़बारों में न सही फेसबुक पर ही सही , किन्तु कुछ वहाँ होते हुए भी दुर्लभ दर्शनीय बने रहे।  बाद में चेहरे की किताब पढ़ी तो पता चला कि वे भी वहीँ थे।
- सुधाकर आशावादी