बुधवार, 4 सितंबर 2013

रोटी का पहाड़ा

- डॉ. सुधाकर आशावादी 
रोजी रोटी के फेर में 
जूझता एक अदद उत्तरदायित्व 
सुबह से शाम तक भटकता है 
उम्मीदों भरी आँखें लिए 
तब कहीं जुटा पाता है 
अपने घोंसले के परिंदों के लिए 
दाना पानी।
मार्ग में मिलते हैं उसे 
अनेक दिशानायक 
जो दिखाते हैं उसे अनगिन राह 
पढ़ाते हैं पहाड़ा जीवन दर्शन का 
जो बैठे मिलते हैं 
चकाचौंध रोशनी भरे पंडालों में 
धवल वस्त्र धारी / पीत वस्त्र धारी।  
वह नहीं जानता 
कौन है इस सृष्टि का रचनाकार 
वह साकार है या निराकार ?
वह सिर्फ इतना ही समझता है 
जो उसे रोटी का पहाड़ा सिखाएगा
भूख से कुलबुलाती अंतड़ियों को 
सुकून दिलवाएगा 
वही उसका परमात्मा बन जाएगा। 

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