मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

लघुकथा : 

कालिदास 
-  सुधाकर आशावादी 
 
माँ बहुत क्रोध में थी । बेटे को घसीट कर चिकित्सक के पास ले आई - डॉक्टर साहेब … मैं इस बच्चे से बहुत परेशान हूँ , समझाती कुछ हूँ , समझता कुछ है । घर में किसी की सुनता ही नहीं , आज इसने पिटने लायक काम कर दिया । मेरी फ़ाइल का जरूरी कागज फाड़ दिया । इसका ऐसा इलाज करो कि यह शैतानी में बेवकूफी भरी हरकतें न करे । 
चिकित्सक महोदय ने उसकी नब्ज़ पकड़ी , फिर उसकी आँखों में टॉर्च की रोशनी डाली , तदुपरांत बोले - बहिन जी इसकी उम्र क्या है … लगता है कि आपके लाड़ प्यार ने इसे बिगाड़ दिया है , वैसे भी इसकी बुद्धि का इसकी उम्र के हिसाब से विकास नहीं हुआ है, मेरी  बात मानो इसका दाखिला प्ले स्कूल में करा दो , धीरे धीरे यह सही जायेगा । 
कैसी बातें कर रहे हो डॉक्टर साहेब … इसके साथ के बच्चे तो पढ़ाई पूरी करके काम धंधे पर लग गए हैं , अभी आप इसे प्ले स्कूल में ही पढ़ाने की बात कर रहे हैं , मैं तो इसे अपने कुनबे की ज़िम्मेदारी सौंपना चाह रही हूँ । माँ ने स्पष्ट किया । 
चिकित्सक को न जाने क्या सूझी , वह बोला - जिस डाल पर बैठे और उसी डाल को काटें , ऐसे कालिदास आज के समय में नहीं मिलते , आगे आपकी मर्जी । 
माँ पैर पटकती हुई वापस लौट गयी । 

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