कविता:
कहानी औरत की
- डॉ.सुधाकर आशावादी
न जाने कब से नहीं नहाई होगी
कूड़े से न सही पर
मैल से चिकटी वह
अपनी धवल दन्त पंक्ति दिखाती है
और उसी ढेर पर बैठकर खाती है
जो भी मिल जाय, जिसे खाया जा सके
उसे सिर्फ पेट भरने के लिए ही
कुछ न कुछ खाना है
न कि कुछ खाने के लिए ।
वह बीनती है कूड़ा
और बेखबर रहती है
मैली कुचैली निगाहों की
दरिंदगी भरी कामनाओं से ।
वह नहीं जानती
कि कितनी कीमती होती है
किसी अबला की इज्ज़त -आबरू
क्या होता है आबरू लुटने का अंजाम
कैसे उफनता है
जन भावनाओं का लावा
और कानून को कठोर बनवाता है
आबरू लुटने पर मुआवजा भी दिलवाता है
लगता है वह अबला नहीं
क्योंकि उसकी आबरू ही नहीं होती
इसलिए उसके लिए
इज्ज़त आबरू की बात बेमानी है
यानि यह भी
एक औरत की कहानी है ॥
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