गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

भूख से बेबस गरीबी दिन में सपने देखती है
सिर्फ सपनों में सही वह रोटी से ही खेलती है
अब सियासत की तिजारत बढ़ गई इस तरह
सपनों का देकर छलावा हसरतों से खेलती है।
- सुधाकर आशावादी

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