रविवार, 12 फ़रवरी 2012

                           ग़ज़ल   
जँगलों में बस्तियों  में आग आग तूफ़ान है 
आजकल अपने ही घर में आदमी मेहमान है ।
हमसफ़र वो क्या बनेगा,ज़िक्र उसका क्या करें
इल्म है दुनियां का  जिसको दर्द से अनजान है 
जिंदगी मजदूर  की अब चीखती फुटपाथ  पर  
लाश ढोती भीड़  में क्या एक भी इंसान   है ?
बादलों में छिप न पायेगा 'सुधाकर' का वजूद 
चाँदनी जी भर लुटाने में ही जिसकी शान है ।।
                  - सुधाकर आशावादी  

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